Tuesday, May 3, 2011

काश वो सफ़ेद चादर पिघल जाए !

स्वयं के अंतर्ध्वनि को सुनता हूँ 
उसे परखता हूँ..
चले जाता हूँ बहुत दूर ..
एक भय सा लगता है...

फिर हिम्मत करता हूँ
और उसका ही नाम 
लेता हूँ 
जिसका वो लेते हैं
जिनपर उनकी परम कृपा रहती है
जिनकी आस्था उनमे प्रगाढ़ है ...

और कर्म करने लगता हूँ 
एकांत में स्वयं से बाते करने लगता हूँ ...


कभी स्वयं ही 
एक चलचित्र का निर्माण करने लगता हूँ...


जिसमे सभी पात्र यथार्थ के ही होते हैं 
पर मेरे अंतर्मन से निकले ध्वनि पर अभिनय करते हैं ...

और अंत में अपने चलचित्र को स्वयं ही 
नकार देता हूँ 
और फिर 
शुरू होता है 
मानव बनने की प्रकिरिया 
जिसे शायद भूल गया था 
आधुनिकता के भंवर में 
और फिर एक विश्वास के साथ 
उच्चारण करता हूँ
की मैं कर सकता हूँ ...

मैं एक दीपक की बाती  बन सकता हूँ 
पर घृत भी मुझे ही 
डालना होगा दीप में 
की मैं रोज़ जल सकूं 
अपने समापन तक 
और दीपक की  उस लौ के ताप  से 
अपने समीप के 
सोये जनमानस को 
जगा सकूं 
कि वो 
आवाज़ दें 
अब और नहीं ...


और मिलकर इतना ताप उत्पन्न करे कि 
भ्रष्ट हुए लोग जो स्वयं को 
ढके हुए हैं सफ़ेद झूठ के 
बर्फ के चादर से 
और कहने को जग के कष्ट हर रहे हैं 
शीतलता पहुंचा कर ...

काश  वो  सफ़ेद चादर पिघल जाए और उनके अरमानो पर पानी फिर जाए...


निशांत