Saturday, November 3, 2012

ए वक़्त अब मुझको बता दे , तेरा क्या इरादा है

इक कलम  रखा हुआ है ,काग़ज़ भी आज सादा है 
ए वक़्त अब मुझको बता  दे , तेरा क्या इरादा है

एक पतंग की तरह से है हमारी ज़िन्दगी,
रब के हाथों में ही इस ज़िन्दगी  का धागा है 

रस्म-ओ-रिवाज़ ,रंग-रूप हैं बहुतेरे मगर 
एक ही काशी है और एक ही तो काबा  है 

शेख जी उन मस्जिदों में ही नहीं रहता खुदा 
है सच जहाँ  कमतर और झूठ बहुत ज्यादा है  

अभी बस  समंदर में उतारी है अपनी कश्तियाँ
खानाबदोशों का सफ़र, अब तलक आधा है  

ले चलो मुझको भी उस शहर में ए दोस्तों 
हो नहीं कोई वजीर ,न कोई जहाँ प्यादा है 

न वो रहे गुमसुम कभी,न ये रहे सादा कभी 
काग़ज़ों से कलम का एक ही बस वादा है 

आज भी लिखता  हैं वो  नील आँखों का बयाँ 
सोया नहीं है,काग़ज़ों में अब तलक जागा है