न जाने क्यूँ वो अब तक कशमकश में हैं ,
निशाँ उनके जब खींचे अक्स अक्स में हैं !
निशाँ उनके जब खींचे अक्स अक्स में हैं !
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स्याह रातों में न जाने फिर वही सबा आई वो लेके मेरे पास मेरा दिया आईना आई
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आमद खुदाई का जिसे बदस्तूर रहा होगा
गैरत में ढल जाना उसे मंज़ूर रहा होगा
वो हल जो आज कर रहा है खेत को रौशन
कच्चा था उसका लोहा कभी बेनूर रहा होगा
मेरी बेगुनाही का सबूत मांगे मेरा खुदा
मेरी तरह वो भी सनम मजबूर रहा होगा
ये भरसक जगी आँखें इक राज़ खोल दे
इनमे भी तुम्हारा हि सुरूर रहा होगा
ये सोचता है कौन दिया नदिया में बहाकर
डूबाने का उन पे भी तो कसूर रहा होगा
अच्छी रचना है भाई साहब .बधाई .
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गज़ल...
वो हल जो आज कर रहा है खेत को रौशन
कच्चा था उसका लोहा कभी बेनूर रहा होगा
बढ़िया!!!
अनु
बहुत ही खूब..
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